लेखक-परिचय - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले (उत्तरप्रदेश) में सन् 1907 ई. में हुआ। आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की तथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निमन्त्रण पर शान्ति-निकेतन में हिन्दी भवन के निदेशक रूप में रहे। वहाँ का शान्त और साहित्यिक वातावरण उनकी साहित्य-साधना के लिए वरदान सिद्ध हुआ। सन् 1950 ई. में द्विवेदीजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर बनकर आये।
भारत सरकार में भी उन्होंने सेवाएँ दीं। द्विवेदीजी उत्तरप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष तथा पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। इनका अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। ये संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं तथा इतिहास, संस्कृति, दर्शन, ज्योतिष और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान आदि में विशेष दक्षता रखते थे। निबन्ध एवं आलोचना के क्षेत्र में इनका विशेष महत्त्व था। इनका निधन सन् 1979 ई. में हुआ।
द्विवेदीजी की प्रमुख रचनाएँ हैं - 'अशोक के फूल', 'कल्पलता', 'विचार और वितर्क', 'कुटज', 'विचार प्रवाह', 'आलोक पर्व', 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' (निबन्ध-संग्रह); 'चारुचन्द्र लेख', 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'पुनर्नवा', 'अनामदास का पोथा' (उपन्यास); सूर-साहित्य', 'कबीर', 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल', 'नाथ सम्प्रदाय', 'हिन्दी साहित्य की भूमिका', 'कालिदास की लालित्य योजना' इत्यादि (आलोचनात्मक कृतियाँ) तथा कुछ सम्पादित ग्रन्थ। इन्हें साहित्य अकादमी ने विशिष्ट पुरस्कार से और भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' उपाधि से सम्मानित किया।
पाठ-सार - 'शिरीष के फूल' द्विवेदीजी का एक ललित निबन्ध है। इसमें शिरीष के सौन्दर्य के माध्यम से विविध विषयों पर रोचक विचार व्यक्त किये गये हैं। इसका सार इस प्रकार है -
1. शिरीष वृक्ष का फूलना-लेखक बताता है कि फूल तो बहुत-से वृक्षों पर आते हैं, परन्तु शिरीष का फूलना उनमें अलग ही विशेषता रखता है। जेठ की तपती दुपहरी में जबकि धरती अग्निकुण्ड जैसी गर्म रहती है, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा रहता है। इस प्रकार की गर्मी-लू से बहुत-से पेड़ झुलस जाते हैं, उनका फूलना तो दूर की बात है। कनेर और अमलतास गर्मी में फूल धारण तो करते हैं किन्तु शिरीष की तरह नहीं।
अमलतास पन्द्रह-बीस दिन फूलता है, जैसे कि वसन्त ऋतु में पलाश थोड़े दिन ही फूलता है। इतने कम समय तक फूलने का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। कबीर को पलाश का पन्द्रह दिन के लिए फूलना पसन्द नहीं था। पन्द्रह दिन फूले और फिर सूखे से दिखाई पड़े, इसमें क्या विशेषता है।
2. शिरीष का अधिक समय तक फूलना-शिरीष वसन्त के आगमन के साथ फूलों से लद जाता है और जेठ से आषाढ़ तक फूलों से लदा रहता है। कभी यह भादों के महीने में भी फूलों से युक्त रहता है। यह मानो दूसरों को भी अजेय रहने का मन्त्र सिखाने का प्रयास करता हुआ-सा प्रतीत होता है।
3. मंगलजनक शिरीष-शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत के रईस जिन मंगलजनक वृक्षों को अपनी वाटिका में लगाते थे, उनमें एक शिरीष वृक्ष भी है। राजा लोग अशोक, रीठा, पुन्नाग आदि वृक्षों की तरह शिरीष के वृक्ष को काफी महत्त्व देते थे। इसे वृहत्संहिता में मंगल-जनक एवं हरीतिमा से युक्त बताया गया है। वाटिका के सामने झूला डालने के लिए जिन वृक्षों के नाम वात्स्यायन ने कामसूत्र में गिनाये हैं, उनमें मौलसिरी आदि वृक्ष तो हैं, शिरीष नहीं। लेखक मानता है कि झूला झूलने के लिए शिरीष का वृक्ष भी बुरा नहीं है। रही कमजोर होने की बात, तो शिरीष झूला झूलने वाली कृशांगी महिलाओं का वजन तो सहन कर ही सकता है।
4. कालिदास द्वारा शिरीष का उल्लेख-महाकवि कालिदास को शिरीष का पुष्प अच्छा लगता था। उन्होंने है कि यह पुष्प इतना कोमल होता है कि वह केवल भौंरों के पैरों का ही बोझ सह सकता है। किन्तु शिरीष का फूल मजबूत भी होता है। जब तक नये पुष्प नहीं निकल आते, तब तक पहले वाला शिरीष पुष्प डाल से अलग नहीं होता है। यह नये फूलों द्वारा धक्का दिये जाने पर ही अलग होता है और सूखने के बाद भी झड़ता नहीं है।
5. शिरीष एक अवधूत-लेखक ने शिरीष की तुलना एक विलक्षण अवधूत से की है। जैसे अवधूत (साधु) गर्मी, सर्दी, दुःख, सुख सब सहता हुआ निश्चिन्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भी भयंकर गर्मी के समय भी न जाने कहाँ से जीवन का रस ग्रहण करता है। यह वृक्ष वायुमण्डल से रस ग्रहण करके जीवित रह सकता है। तभी तो गर्मी में भी कोमल पुष्प धारण कर लेता है। .
6. राजनेताओं की पद-लिप्सा-लेखक ने निबन्ध में शिरीष के पुष्प के माध्यम से बहुत कुछ कहा है। उन्होंने शिरीष वृक्ष-पुष्पों के माध्यम से सुझाव देते हुए राजनेताओं पर कटाक्ष किया है। जिस प्रकार शिरीष के पुराने सूखे फूल नये फूलों के द्वारा धकियाये जाने पर अपने वृन्त से अलग होते हैं, उसी प्रकार अधिकार की लिप्सा रखने वाले नेता लोग तभी पद छोड़ते हैं, जब नयी पीढ़ी के लोग उन्हें धक्का देकर नहीं हटा देते। पद और अधिकार के प्रति इतनी लिप्सा ठीक नहीं है। व्यक्ति को समय का रुख देखकर व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा उसे अपमानित होना पड़ता है। पद प्राप्त कर लेने से ही व्यक्ति का नाम अमर नहीं हो जाता है।
7. कवियों के लिए अनासक्ति का महत्त्व-शिरीष वृक्ष अद्भुत अवधूत तथा अनासक्त है, वह मस्त एवं फक्कड़ जैसा है। इसी तरह कालिदास आदि महाकवि भी अनासक्त, मस्त और फक्कड़ाना प्रवृत्ति के होते हैं। कबीर और पन्त में अनासक्ति थी, रवीन्द्रनाथ में भी अनासक्ति थी। महान् व्यक्ति सिंहद्वार की तरह अपना लक्ष्य समझता है। सब कुछ अवधूत की तरह सहन करने तथा अनासक्त रहकर आगे बढ़ने से ही महान् लक्ष्य मिलता है। शिरीष भी अवधूत है, तभी तो वह गर्मी, वर्षा, लू, शीत आदि सहता है, भयंकर गर्मी में फूल पाता है। वह वायुमण्डल से रस लेता है। गाँधीजी भी वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और कठोर हो सके थे। लेखक सोचता है कि आज ऐसे अवधूत कहाँ हैं !