इन पक्तियों का प्रसंग मानव जीवन में आए दुःख से है। कवि के कहने का भावार्थ यह है कि वहीं मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य है जो अपने जीवन में आए दुःख में विचलित नहीं होता। वह उसे दुःख नहीं माने, बल्कि धैर्य के साथ उसका सामना करे। वही मनुष्य सच्चा मानव है जो निर्लिप्त भाव से जीवन जीए। सभी प्रकार की कठिनाइयों तथा कष्टों का हँसते हुए प्रसन्नता के साथ सामना करे।
प्रायः देखा जाता है कि जब हम दुःख और परेशानियों से घिर जाते हैं, तो अनेक प्रकार की दुश्चिंताएँ तथा संताप हमारे मानसिक संतुलन को प्रभावित करते हैं। हमारा मन भटकने लगता है तथा हम विवेक-शून्य होते जाते हैं। हम अक्सर किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं अर्थात् हम क्या करें, क्या नहीं करें, कभी-कभी हम कुप्रवृत्तियों के शिकार होकर गलत मार्ग अपना लेते हैं तथा पाप व अनैतिक कार्यों की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं।
अतः विद्वान संत कवि गुरू नानक देव ने हमें निराशा नहीं होने का संदेश देते हुए कहा है-
"जो नर दुःख को दुःख नहीं माने !
सुख स्नेह अरू भय नहीं जाके, कंचन माटी जाने !!
अर्थात् सुख, स्नेह और भय के बीच भी जो निर्भय होकर विकार रहित शुद्ध भाव से जिये वही सच्चा मनुष्य है। जो सोना को भी माटी समझे अर्थात् जो लोभ, मोह से मुक्त होकर सम भाव से जीवन जिए, वही सच्चा मानव है। गुरू नानक की दृष्टि में सही मनुष्य या सच्चा नर वही है, जो दुःख में जीते हुए भी दुःख से ऊपर उठकर जीवन व्यतीत करे। कहने का आशय यह है कि निर्लिप्त भावना से जीवन जिए।