मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य समाज को ध्यान में रखकर ही करता है। मनुष्य समाज का प्रत्येक सुख और आनंद चाहता है। सुख प्राप्ति के कई साधन हो सकते हैं परंतु शिक्षा सबसे अधिक आवश्यक है। शिक्षा की आवश्यकता समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से है। स्त्रियाँ शिक्षित होकर अपने उत्तरदायित्व को ठीक तरह से निभा सकती हैं। उनकी अशिक्षा का प्रभाव समाज पर कभी भी अच्छा नहीं पड़ता। इसलिए स्त्री शिक्षा की आवश्यकता है। स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी होती हैं। यदि वे सुशिक्षित होंगी तो उनकी संतान भी उन्हीं के अनुरूप होगी।
जीवन – रथ के दो चक्र हैं – स्त्री और पुरुष। इन दोनों को शिक्षा की आवश्यकता है। यदि गृहिणी सुशिक्षित रहती है तो वह अपने पति के कार्यों में हाथ बटाती है तथा उसकी सहायता करती है। अतः स्त्रियों की शिक्षा आवश्यक है। शिक्षित स्त्रियाँ बच्चों के लालन – पालन को बड़े सुंदर ढंग से करती हैं। इससे भावी संतानों में बचपन से ही अच्छे संस्कार जमते रहते हैं। राष्ट्र में स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, उन्हें सम्मानित जीवन व्यतीत करने के योग्य होना ही चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें परावलंबी तथा निराश्रित न बनना पड़े, उनमें आत्मविश्वास बना रहे। इसलिए स्त्री को शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है। विवेक शक्ति के उचित विकास के लिए स्त्री शिक्षा जरूरी है। सामाजिक रहन – सहन को ऊपर उठाने के लिए स्त्री शिक्षा की जरूरत है। यदि स्त्रियों को पुरुषों के समान स्वतंत्र और स्वावलंबी बनाकर पुरुषों के समानांतर चलना है तब तो उनकी शिक्षा प्रणाली पुरुषों के समान होनी चाहिए।
जिस प्रकार एक अशिक्षित पुरुष से समाज एवं राष्ट्र का कोई हित – साधन नहीं हो सकता, उसी प्रकार निरक्षर नारियाँ भी समाज के ऊपर बोझ हैं। पढ़ लिख जाने पर नारी के ज्ञान का विकास होता है। उसमें उचित – अनुचित को समझने का विवेक उत्पन्न हो जाता है। शिक्षा के द्वारा ही कूपमण्डूकता से मुक्ति पाकर भविष्य – दृष्टा हो जाती है। अज्ञान, अविश्वास, भय, रूढ़िवादिता और मानवीयता जैसे अवगुणों का नाश होकर उनके स्थान पर सरल, सात्विक एवं कल्याणप्रद मानवीय गुणों का उसमें विकास होता है। पढ़ी – लिखी नारी अपनी अमूल्य सलाहों से परिवार के नीरस एवं दुःखी जीवन में मधुर रस का संचार करती हैं।
माता बालक की गुरु होती है। इसलिए जो आज के बालक हैं कल भावी राष्ट्र के नागरिक हैं। उनको योग्य नागरिक बनाना नारी का ही काम है। बच्चों में अच्छे गुणों का विकास करने का श्रेय माँ को ही है। नम्रता, शिष्टाचार, सदाचार आदि गुण बच्चे माँ से ही सीखते हैं। शिवाजी को वीर बनाने का श्रेय जीजाबाई को ही था। गाँधीजी के सत्य और अहिंसा के सन्देश के पीछे उनकी माँ का ही अधिक योगदान था। अतः यह स्पष्ट है कि नारी बालक को जिस ओर चाहे मोड़ सकती है। वह चाहे तो पुत्र को बलवान, धीर एवं नम्र बना सकती है और वह चाहे तो पुत्र को चरित्रहीन, पापी, क्रूर भी बना सकती है।
इस विश्व में शान्ति, प्रेम, चरित्र आदि का विस्तार करने के लिए स्त्री – शिक्षा अनिवार्य हैं। पुरुषों को भी चाहिए कि वे भी नारियों का सम्मान करते हुए उनके अधिकारों की अवहेलना न करें। तभी समाज तथा राष्ट्र का कल्याण होगा क्योंकि शिक्षित नारियाँ ही प्रत्येक राष्ट्र की अमूल्य निधि और मणियाँ हैं।