‘मैं और मैं’ कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा रचित एक ललित निबन्ध है। इसमें लेखक ने मनुष्य की कुछ स्वाभाविक भावनाओं और कमजोरियों के बारे में बताया है। लेखक और उसके मित्र वार्तालाप कर रहे हैं। लेखक अपने मित्र को बताता है कि वह गम्भीर चिन्तन में खोया हुआ था। वह अपने ही विषय में सोच रहा था। मनुष्य का स्वभाव है कि वह दूसरों के बारे में ज्यादा सोचता है। तथा उनमें कमियाँ देखकरे स्वयं उच्च होने के गर्व से फूल उठता है तथा उनको नीचा समझकर उनसे घृणा करता है। यह घृणा की भावना उसका ही सबसे अधिक अहित करती है तथा जीवन की उच्चता में बाधक होती है।
मनुष्य को अधिकार है कि वह अपने ही बारे में सोचे। वह अच्छे काम करे, जिससे दूसरे लोग उससे प्रेरित हों। मनुष्य को अच्छे काम करने का अहंकार अपने मन में नहीं पालना चाहिए, न दूसरों पर इसका अहसान लादना चाहिए। अहंकार से घृणा का जन्म होता है तथा घृणा जीवन की उन्नति में बाधक होती है।
मनुष्य को अधिकार है कि वह हार जाए, गिर जाए, थक जाए अथवा भूल करे। यह संभव है तथा स्वाभाविक भी, परन्तु उसका यह कर्तव्य भी है कि वह हारकर भागे नहीं, गिरकर गिरी ही न रहे, थक कर बैठा ही न रहे तथा भूलकर उसी में भ्रमित न होता रहे। वह सामना करे, उठे, चले और भ्रम से मुक्त हो । चलना तथा काम करना ही जीवन है। थककर बैठ जाना मृत्यु है।