कबीर को प्रायः एक उपदेशक, समाज सुधारक और मूर्तिपूजा के विरोधी के रूप में जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों पर बड़े तीखे व्यंग्यबाण चलाए हैं। कबीर का एक और भी रूप है जो उनके हृदय में निवास करती व्याकुल विरहिणी की हृदयस्पर्शी उक्तियों में व्यक्त हुआ है। निराकार ईश्वर के उपासक, अक्खड़ आलोचक संसार के सुखों से दूर रहने के उपदेशक के मुख से प्रियतम परमात्मा के प्रति विरहिणी आत्मा की व्याकुल प्रकार हम को चकित कर देती है। हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित दो दोहे, कबीर दास जी के हृदय की कोमलता का परिचय कराते हैं।
पहले दोहे में कबीर रूपिणी विरहिणी प्रियतम परमात्मा से अनुरोध कर रही है-हे प्रियतम ! तुम मेरे नेत्रों में आकर बस जाओ। मैं तुम्हें अपने पलकों में बंद कर लेना चाहती हैं। तुम्हें पाकर मैं किसी अन्य की ओर देखना भी नहीं चाहती और साथ ही चाहती हैं कि तुम्हें मेरे अतिरिक्त कोई और न देख पाए। दूसरे दोहे में विरहिणी आत्मा परमात्मा के पधारने की बाट जोह रही है। उसे बाट देखते हुए बहुत दिन हो चुके हैं। उसकी अभिलाषा पूरी नहीं हो पा रही है। उसका व्याकुल हदय प्रिय-दर्शन के लिए तरस रहा है। मन को कैसे भी चैन नहीं मिल पा रही है। उपर्युक्त कथनों में कवि के हृदय का प्रेम रस, सहज और मर्मस्पर्शी रूप में प्रवाहित हो रहा है।