सृष्टि के विकास का आधार नर और नारी दोनों हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसीलिए प्राचीन काल से ही नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने तो यहाँ तक कह दिया-
‘एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से बढ़कर नारी’।
महाकवि जयशंकर प्रसाद ने नारी के संबंध में कहा है
‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में,
पीयूष स्त्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।
नारी प्रकृति का एक वरदान है, मानव जीवन में बहने वाली अमृत सलिला है। नारी सृष्टि की निर्मात्री, मातृत्व की गरिमा से मंडित, करुणा की देवी, ममता की स्नेहमयी मूर्ति, त्याग, समर्पण की प्रतिमा तथा स्नेह एवं सहानुभूति की अनुपम कृति है। एक ओर वह गृह की संचालिका है, इसीलिए गृहलक्ष्मी है, दूसरी ओर बालक की प्रथम शिक्षिका है, इसीलिए सरस्वती है, संतान को जन्म देती है, इसीलिए ‘माँ’ भी है। नारी के इन्हीं गुणों के कारण कहा गया है-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।’
एक समय था जब समाज में नारी को आदर एवं श्रद्धा से देखा जाता था। उसे पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे तथा कोई भी मांगलिक कार्य स्त्री के बिना पूर्ण नहीं होता था। स्त्री को माता का जो महान और भव्य रूप हिंदू शास्त्रकारों ने दिया, वही अन्य किसी देश में नहीं मिलता। भारतीय संस्कृति में नारी को ‘देवी’, ‘भगवती’ आदि कहा गया है। उसका स्थान नर से कहीं बढ़कर माना जाता था। गार्गी, मैत्रेयी, अनसूया, सावित्री जैसी विदुषी महिलाएँ इसका ज्वलंत उदाहरण हैं।
धीरे-धीरे समय के पटाक्षेप के कारण नारी की दशा में बदलाव आने लगा। कहाँ तो वह श्रद्धामयी और पूजनीय मानी जाती थी, तो कहाँ वह पुरुष की दासी बनकर घर की चारदीवारी में बंद होकर रह गई। आर्थिक परतंत्रता के कारण उसकी दशा और भी दयनीय हो गई। उसे केवल भोग-विलास एवं प्रताड़ना की वस्तु समझा जाने लगा। मध्यकाल में परदा प्रथा, बाल-विवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह, सती प्रथा जैसी बुराइयों के कारण उसकी स्थिति और भी हीन हो गई।
समय सदैव एक-सा नहीं रहता। परिस्थितियाँ बदलीं और साथ-साथ नारी के प्रति दृष्टिकोण भी बदलने लगा। ब्रह्म समाज तथा आर्य समाज ने नारी जाति के उद्धार का बीड़ा उठाया। ब्रह्म समाज के प्रवर्तक राजाराम मोहन राय ने ‘सती प्रथा’ को कानूनन बंद कराने में सफलता प्राप्त की, तो आर्य समाज के जन्मदाता महर्षि दयानंद ने नारी जाति को शिक्षित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी को पुनः पुरुष के समकक्ष अधिकार मिले। भारतीय संविधान में उसे पुरुष के समकक्ष माना गया। आज वह जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही है तथा अपनी योग्यता एवं प्रतिभा का परिचय दे रही है। आज वह दोहरी भूमिका निभा रही है। एक ओर तो वह गृहिणी है तथा परिवार के उत्तरदायित्वों से बँधी है, तो दूसरी ओर स्वावलंबी है तथा अनेक क्षेत्रों में कार्यरत है।
यद्यपि आज की नारी आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र है, परंतु भारत जैसे विशाल देश में गाँवों में आज भी नारी की स्थिति अच्छी नहीं है। गाँवों में आज भी वह पुरुष की दासी है तथा कष्टपूर्ण जीवन बिता रही है क्योंकि वह पूर्णतः पुरुष पर आश्रित है।
बड़े नगरों में नारी की दोहरी भूमिका के कारण कुछ समस्याओं ने भी जन्म लिया है, जिनमें पारिवारिक कलह, दांपत्य जीवन में कटुता, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, तलाक आदि शामिल हैं। पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में अत्यधिक शिक्षित एवं स्वावलंबी नारी अपनी संस्कृति तथा नैतिक मूल्यों को विस्मृत करती जा रही है, जिसे उचित नहीं माना जा सकता।
स्त्री और पुरुष समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं; अतः समाज की उन्नति एवं विकास के लिए दोनों का सुदृढ़ होना आवश्यक है, इसलिए यह आवश्यक है कि पुरुष नारी को अपने से हीन न समझे तथा नारी भी अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहे।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे