‘व्यक्तित्व’ शब्द का साधारण बोल-चाल में बहुत अधिक प्रयोग होता है। प्रत्येक बालक भी अपने व्यक्तित्व के विकास एवं निखार के प्रति सजग रहता है। अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व का भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से निरंतर मूल्यांकन किया जाता रहता है। फिल्मी कलाकारों, राजनीतिक नेताओं, शिक्षकों तथा अभिभावकों तक के व्यक्तित्व की चर्चा की जाती है। इसके अतिरिक्ति व्यवसाय वरण करने वाले युवक भी व्यक्तित्व परीक्षण की बात किया करते हैं; यथा-इंटरव्यू में व्यक्तित्व का विशेष प्रभाव पड़ता है’ आदि। स्पष्ट है कि व्यक्तित्व’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है।
व्यक्तित्व का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रयोग होने वाले शब्द ‘व्यक्तित्व’ का आशय संबंधित व्यक्ति के बाहरी पक्ष से होता है। इस दृष्टिकोण से यदि व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) समय के अनुकूल वस्त्र धारण करे, अच्छे तथा सौम्य ढंग का फैशन करे तो माना जाता है कि अमुक व्यक्ति का व्यक्तित्व श्रेष्ठ है। इस दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के निर्धारण में शारीरिक पक्ष को ही महत्त्व दिया जाता है। इस प्रचलित अर्थ के अतिरिक्ति दार्शनिक दृष्टिकोण से भी व्यक्तित्व का विवेचन किया जाता है। दार्शनिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व से आशय व्यक्ति के आंतरिक रूप से होता है। इस दृष्टिकोण से व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण उसकी आत्मा या आध्यात्मिक गुणों के आधार पर किया जाता है। यदि तटस्थ भाव से देखा जाए तो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व संबंधी उपर्युक्त दोनों ही मत एकांगी तथा अपने आप में अपूर्ण हैं। व्यक्तित्व की पूर्ण व्याख्या के लिए इस शब्द के शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ वास्तविक अर्थ एवं परिभाषाओं का भी विवेचन करना होगा।
व्यक्तित्व की अवधारणा एक जटिल अवधारणा है। व्यक्तित्व’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द *Personality’ का हिंदी रूपांतर है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के persona’ शब्द से हुई है। इसका पारंपरिक अर्थ वेशभूषा है, जो नाटकों के समय कलाकरों द्वारा धारण की जाती थी। उदाहरणार्थ-यदि कोई कलाकार सम्राट की वेशभूषा धारण करके रंगमंच पर प्रस्तुत होता था तो उस रूप को विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता था। इस पारंपरिक अर्थ को ही आधार पर आगे चलकर व्यक्ति के गुणों को ‘पर्साना’ (व्यक्तित्व) के रूप में जाना जाने लगा। व्यक्तित्व के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा जाता है कि व्यक्ति की जितनी भी विशेषताएँ अथवा विलक्षणताएँ होती हैं, उन सबका समन्वित अथवा संगठित (Integrated) रूप ही व्यक्तित्व है। यह एक प्रकार का गत्यात्मक संगठन (Dynamic organisation) होता है। शरीर से संबंधित विशेषताओं को व्यक्तित्व का बाहरी पक्ष माना जाता है। इससे भिन्न व्यक्ति की बुद्धि, योग्यताएँ, आदतें, रुचियाँ, दृष्टिकोण, चरित्र आदि विशेषताएँ व्यक्तित्व के आंतरिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं।
व्यक्तित्व को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं।
⦁ ऑलपोर्ट के अनुसार-“व्यक्तित्व व्यक्ति के भीतर उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो परिवेश के प्रति होने वाले अपूर्व अभियोजनों का निर्णय करते हैं।”
⦁ मन के अनुसार-“व्यक्तित्व की परिभाषा एक व्यक्ति के ढाँचे, व्यवहार के रूपों, रुचियों, अभिवृत्तियों, सामथ्र्यो, योग्यताओं तथा अभिरुचियों के सबसे अधिक लाक्षणिक संकलन के रूप में की जा सकती है।”
⦁ मार्टन प्रिन्स के शब्दों में-“व्यक्तित्व समस्त शारीरिक, जन्मजात तथा अर्जित प्रवृत्तियों का योग है।” प्रकार के आंतरिक एवं बाहरी गुणों का समावेश होता है। व्यक्ति के व्यवहार से जो कुछ भी प्रकट होता है, वह सब उसके व्यक्तित्व का ही परिणाम होता है। इन समस्त परिभाषाओं से ज्ञात होता है कि व्यक्ति के केवल बाहरी रूप को ही नहीं बल्कि बाहरी व आंतरिक अर्थात् शारीरिक व मानसिक गुणों के योग को व्यक्तित्व के रूप में परिभाषित किया जाता है।
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक
व्यक्ति अथवा बालक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों के अभीष्ट विकास के लिए मुख्य रूप से दो कारकों को उत्तरदायी ठहराया जाता है, ये कारक हैं-वंशानुक्रमण (Heredity) तथा पर्यावरण (Environment)। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से इन दोनों की भूमिका तथा महत्त्व का वर्णन किया है। कुछ विद्वान् व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास के लिए केवल आनुवंशिकता को ही महत्त्व देते हैं तथा स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जैसी वंश परंपरा एवं विशेषताएँ होंगी, वैसी ही उनकी संतानें भी होंगी। इस मत के समर्थक विद्वान् पर्यावरण को गौण मानते हैं तथा उनके अनुसार व्यक्ति स्वयं अपने अनुकूल पर्यावरण को तैयार कर लेता है। इसके विपरीत, विद्वानों का एक अन्य वर्ग व्यक्ति के विकास में पर्यावरण के कार्य भाग को अधिक महत्त्व देता है। इस मत के समर्थक एक विद्वान का कहना है, “नवजात शिशु अनिश्चित रूप से लचीला होता है। उसके अनुसार, “मुझे एक दर्जन बच्चे दे दीजिए, मैं आपकी माँग के अनुसार उनमें से किसी को भी चिकित्सक, वकील, व्यापारी अथवा चोर बना सकता हूँ। मनुष्य कुछ नहीं है, वह पर्यावरण का दास है, उसकी उपज है। इस कथन के अनुसार स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में उसके वंश-परंपरा का कोई महत्त्व नहीं है, केवल पर्यावरण ही उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। आज यह स्वीकार किया जाने लगा है कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रमण एवं पर्यावरण दोनों का ही प्रभाव पड़ता है। इसलिए इन दोनों को थोड़ा विस्तारपूर्वक समझ लेना अनिवार्य है-
1. वंशानुक्रमण-व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास को प्रभावित करने वाले एक मुख्य कारक को आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण कहा जाता है। हिंदी के वंशानुक्रमण’ शब्द के अंग्रेजी पर्यायवाची ‘हेरेडिटी’ (Heredity) है। यह शब्द वास्तव में लैटिन शब्द ‘हेरिडिस’ (Heriditas) से व्युत्पन्न हुआ है। लैटिन भाषा में इस शब्द का आशय उस पूँजी से होता है, जो बच्चों को माता-पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती है। प्रस्तुत संदर्भ में वंशानुक्रमण का आशय व्यक्तियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होने वाले शारीरिक, बौद्धिक तथा अन्य व्यक्तित्व संबंधी गुणों से है। इस मान्यता के अनुसार बच्चों या संतान के विभिन्न गुण एवं लक्षणे अपने माता-पिता के समान होते हैं। उदाहरणार्थ-गोरे माता-पिता की संतान गोरी होती हैं। लंबे कद के माता-पिता की संतान भी लंबी होती है। इसी तथ्य के अनुसार प्रजातिगत विशेषताएँ सदैव बनी रहती है। वंशानुक्रमण के ही कारण मनुष्य की प्रत्येक संतान मनुष्य ही होती है। कभी भी कोई बिल्ली कुत्ते को जन्म नहीं देती। ऐसा माना जाता है कि लिंग-भेद, शारीरिक लक्षणों, बौद्धिक प्रतिभा, स्वभाव पर वंशानुक्रमण का गंभीर प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रमण एक प्रबल एवं महत्त्वपूर्ण कारक है, परंतु इसे एकमात्र कारक मानना अंसगत है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जिसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।
2. पर्यावरण-व्यक्ति को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाला एक मुख्य कारक पर्यावरण भी है। पर्यावरण का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं, वरन् विश्व की प्रत्येक जड़-चेतन वस्तू पर पड़ता है। मनुष्य के साथ-साथ पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं भौतिक पदार्थ भी पर्यावरण के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। वनस्पतिशास्त्रियों ने सिद्ध कर दिया है कि अनेक पेड़-पौधे केवल एक विशिष्ट प्रकार के पर्यावरण (जलवायु आदि) में ही उग सकते हैं। इसी प्रकार पशु-पक्षी भी पर्यावरण पर निर्भर करते हैं। पहाड़ों पर रहने वाला सफेद भालू गर्म मैदानों में नहीं रह सकता। जहाँ तक मनुष्य का प्रश्न है वह भी पर्यावरण से अत्यधिक प्रभावित होता है। वैसे यह सत्य है। कि मनुष्य पूर्णतया पर्यावरण का दास नहीं है। मनुष्य में अपने पर्यावरण को एक सीमा तक नियंत्रित एवं परिवर्तित करने की भी क्षमता है, परंतु इस क्षमता के होते हुए भी सामान्य रूप से व्यक्ति को पर्यावरण के प्रभाव से मुक्त नहीं माना जा सकता। पर्यावरण मनुष्य को कहाँ तक प्रभावित करता है तथा पर्यावरण को मनुष्य कहाँ तक नियंत्रित कर सकता है, यह एक भिन्न प्रश्न है। इस विवाद से बचते हुए यह स्वीकार किया जा सकता है कि व्यक्ति का जीवन पर्यावरण से प्रभावित अवश्य होता है। हिंदी के ‘पर्यावरण’ शब्द का अंग्रेजी पयार्यवाची Environment है। पर्यावरण’ शब्द, दो शब्दों ‘परि + आवरण’ से मिलकर बना है। ‘परि शब्द का अर्थ है ‘चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ शब्द का अर्थ है ‘ढके हुए। इस प्रकार से * ‘पर्यावरण’ को अर्थ हुआ चारों ओर ढके हुए’ या ‘चारों ओर से घिरे हुए। इस स्थिति में व्यक्ति का पर्यावरण वह समस्त क्षेत्र है जो व्यक्ति को घेरे रहता है; अर्थात् विश्व में व्यक्ति के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह उसका पर्यावरण है। पर्यावरणविदों को तो यहाँ तक कहना है कि व्यक्ति केवल अपने पर्यावरण की ही उपज है।” इस वर्ग के विद्वानों का कहना है कि पर्यावरण व्यक्ति को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्ष पर्यावरण के ही परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। इस मत के अनुयायिओं के अनुसार मानव शिशु को इच्छानुसार विकसित किया जा सकता है, केवल अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध कराना अनिवार्य होगा। पर्यावरणविदों के अनुसार यदि कोई समूह अपने पर्यावरण को नियंत्रित करने में सफल हो जाये तो वह अपने सदस्यों को सरलता से अभीष्ट रूप से विकसित कर सकता है। वातावरण के बहुपक्षीय तथा निश्चित प्रभावों को प्रमाणित करने के लिए अनेक सफल परीक्षण भी किए जा चुके हैं।