भाव और संवेग में अन्तर (Difference between Feeling and Emotion)
मानव-मन के तीन प्रमुख पक्ष हैं : ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक। मन के भावात्मक पक्ष से सम्बन्धित एक प्रारम्भिक सरल मानसिक प्रक्रिया भाव है जो प्राणी को सुख या दु:ख का अनुभव कराती है। मन के चेष्टात्मक अथवा इच्छात्मक और ज्ञानात्मक, इन दो पक्षों के माध्यम से भाव का अनुभव होता है। इसी को हम ‘अनुभूति’ (Feeling) भी कहते हैं जिसे मन की चेतनावस्था में अनुभव किया जाता है। उदाहरण के लिए प्रसन्नता, सन्तोष, करुणा, चिन्ता, उल्लास तथा आश्चर्य आदि भाव या अनुभूतियाँ हैं। भाव और संवेग कुछ बिन्दुओं पर समानताएँ रखते हैं तो कुछ बिन्दुओं पर एक-दूसरे से भिन्नताएँ। ये समानताएँ और भिन्नताएँ निम्न प्रकार हैं –
समानताएँ – भाव और संवेग के मध्य गहरा सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध की घनिष्ठता इतनी अधिक है कि कुछ मनोवैज्ञानिक भाव और संवेग में अन्तर नहीं करते और दोनों को एक ही स्वीकार करते हैं। ये समानताएँ इस प्रकार हैं –
⦁ भाव और संवेग, इन दोनों का सम्बन्ध स्नायु-संस्थान के अन्तर्गत मस्तिष्क से होता है।
⦁ अनेक संवेग साधारणतया भाव होते हैं, जबकि भाव तीव्र रूप में संवेग बन जाता है।
⦁ भाव और संवेग दोनों में ही सुख या दु:ख पाया जाता है।
अन्तर – यद्यपि भाव और संवेग दोनों का सम्बन्ध मन के भावात्मक पक्ष से है, तथापि ये दोनों भिन्न मानसिक प्रक्रियाएँ हैं। दोनों के मध्य निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं –
(1) जटिलता सम्बन्धी अन्तर – संवेग एक जटिल भावात्मक मानसिक प्रक्रिया है, जबकि भाव एक सरल तथा प्राथमिक मानसिक प्रक्रिया है। संवेग परिस्थिति-विशेष की भूतकालीन स्मृति या भावी कल्पना द्वारा उत्तेजना पाकर भी उत्पन्न हो सकते हैं। इनकी उत्पत्ति के लिए किसी प्रत्यक्ष परिस्थिति का होना अनिवार्य नहीं है। उदाहरण के लिए-शीतकाल की बर्फीली रात में एक बीमार बूढ़े आदमी का नंगे बदन ठिठुरना, जब भी स्मृति में आता है तो वह करुणा का संवेग उत्पन्न करता है। विमान परिचारिका बनकर दुनियाभर की सैर करने की भावी कल्पना किसी लड़की के मन में उत्साह । पैदा करती है। इसके विपरीत, भावों की उत्पत्ति इन्द्रियजनित सरल संवेदनाओं के फलस्वरूप होती है। उदाहरण के लिए-पुरस्कार की प्राप्ति से सुख का भाव तथा शरीर में चोट लगने से दु:ख का भाव उत्पन्न होता है।
(2) व्यापकता सम्बन्धी अन्तर – संवेग भाव से अधिक व्यापक होते हैं। संवेग की स्थिति में शरीर और मन पर्याप्त रूप से प्रभावित होते हैं। इसके अन्तर्गत हृदय की धड़कन, श्वास की गति, रक्तचाप, रक्त संचार, नलिकाविहीन एवं आमाशय की ग्रन्थियाँ आदि सभी परिवर्तित दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः संवेग में भाव का होना आवश्यक है, किन्तु संवेग के बिना ही भाव की अनुभूति होती है अर्थात् भाव में संवेग सम्मिलित नहीं होता, किन्तु संवेग भावयुक्त होता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के बाहरी तथा आन्तरिक व्यवहारों में भाव का प्रकटीकरण होने से वह संवेग का रूप धारण कर लेता है। स्पष्ट रूप से संवेग का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। इसके विपरीत, भाव एक सीमित और संकुचित मन:स्थिति है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के शरीर और मन की दशा में विशेष बदलाव नहीं आते।
(3) उग्रता सम्बन्धी अन्तर – भाव और संवेग के बीच एक अन्तर उग्रता का है। संवेग अपेक्षाकृत उग्र होता है। संवेग में एक अजीब उथल-पुथल के कारण व्यक्ति असामान्य अवस्था धारण कर लेता है। और अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। वस्तुत: ‘उग्र भाव’ का ही दूसरा नाम संवेग है, जिसका प्रभाव स्मृति पर एक लम्बे समय तक बना रहता है। किसी शव को देखकर दु:ख का भाव उत्पन्न होता है, किन्तु घर में जवान मौत हो जाए तो दुःख का भाव उग्र होकर संवेग में बदल जाएगा। स्पष्टत: संवेग के विपरीत भाव में थोड़ी बहुत अव्यवस्था के बावजूद भी व्यक्ति की सामान्य अवस्था पाई जाती है।
(4) सक्रियता सम्बन्धी अन्तर – भाव की अपेक्षा संवेग के समय व्यक्ति में अधिक सक्रियता दिखाई पड़ती है। संवेग के दौरान हमारे शरीर का एक बड़ा भाग (जिसमें वृहद् मस्तिष्क की कॉर्टेक्स स्वत:संचालित स्नायुमण्डल तथा हाइपोथैलेमस होते हैं) प्रभावित होता है, जबकि भाव की दशा में केवल वृहद् मस्तिष्क की कॉर्टेक्स ही प्रभावित होती है, परिणामस्वरूप भाव की अपेक्षा संवेग की दशा में व्यक्ति अधिक सक्रिय रहता है।
(5) प्रकार सम्बन्धी अन्तर – संवेग के विभिन्न प्रकार हैं जिसके अन्तर्गत भय, शोक, क्रोध, घृणा, प्रेम तथा आश्चर्य के संवेग आते हैं। इसके विपरीत भाव के दो ही प्रकार, सुख और दुःख का भाव, मान्य हैं।
(6) उपागम सम्बन्धी अन्तर – भाव और संवेग के मध्य एक प्रमुख अन्तर उपागम (Approach) को लेकर है। उपागम (पहुँच के मार्ग) दो हैं-आत्मगत (Subjective) तथा वस्तुगत (Objective), क्योंकि भाव की अनुभूति व्यक्ति को स्वयं अपने अन्दर होती है और वह किसी अन्य के भाव को प्रत्यक्ष रूप में नहीं देख सकता; अत: भाव ‘आत्मगत’ होता है। संवेग को व्यक्ति स्वयं में तो अनुभव करता ही है, इसके साथ ही व्यवहारों के माध्यम से इसका प्रकटीकरण भी हो जाता है; अतः संवेग ‘आत्मगत और वस्तुगत’ दोनों है। व्यक्ति अपने दुःख-सुख के भाव की अनुभूति तो कर सकता है, लेकिन दूसरों की नहीं—इसलिए आत्मगत है, किन्तु क्रोध का संवेग स्वयं भी अनुभव होता है और व्यवहार द्वारा इसकी अभिव्यक्ति भी होती है-इसलिए आत्मगत के साथ वस्तुगत भी है।