स्वभावगत भय को भीरुता कहते हैं। भय की आदत बन जाने पर उसको भीरुता कहा जाता है। इसको कायरता भी कहते हैं। भीरुता स्त्री-पुरुष दोनों में पाई जाती है। पुरुषों को स्वाभाविक रूप से साहसी माना जाता है। उनकी भीरुता निंदनीय होती है परन्तु स्त्रियों की भीरुता रसिकों के मनोरंजन का विषय होती है। भीरु व्यक्ति में कष्ट सहने की क्षमता नहीं होती तथा उस कष्ट से मुक्ति का पूर्ण विश्वास भी उसको नहीं होता। भूतों से डरना तथा पशुओं से डरना भी भीरुता है। भीरुता निंदनीय होती है किन्तु धर्म भीरुता प्रशंसनीय मानी जाती है। इसको पुरानी चाल की भीरुता कह सकते हैं।
भीरुता नवीन प्रकार की भी होती है। यह जीवन के अन्य अनेक व्यापारों में दिखाई देती है। इस प्रकार की भीरुता में सहन करने की क्षमता और अपनी शक्ति में अविश्वास छिपा रहता है। कोई व्यापारी कभी-कभी किसी नई वस्तु का व्यापार शुरू नहीं करता। उसको इसमें आर्थिक हानि होने का भय लगता है। यह व्यापारी की भीरुता है। उसमें आर्थिक नुकसान को सहने की क्षमता तथा अपने व्यापार कौशल पर अविश्वास होता है। इसी प्रकार कोई विद्वान पुरुष जब अपने विद्या-बुद्धि की शक्ति पर अविश्वास होने के कारण और मानहानि के डर से किसी के साथ शास्त्रार्थ से बचता है तो इसको उसकी भीरुता ही माना जाएगा। ये नवीन प्रकार की भीरुता के रूप हैं।