नैतिक स्वतंत्रता से आशय- अंत:करण और नैतिक गुणों से प्रभावित होकर जब व्यक्ति कार्य करता है तो उसे नैतिक स्वतंत्रता कहते हैं। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के चरित्र, नैतिकता एवं औचित्यपूर्ण व्यवहार से है। राज्य संस्था द्वारा जो विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएँ व्यक्तियों को प्राप्त होती हैं, उनका सदुपयोग मनुष्य तभी कर सकता है जब वह नैतिक दृष्टि से भी स्वतंत्र हो। मानवीय संस्थाओं का संचालन मनुष्य द्वारा ही होता है।
मनुष्य का जैसा स्वभाव, चरित्र व मन होगा वैसी ही उसकी संस्थाएँ भी होंगी। यदि राज्य में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की स्थापना हो, संविधान द्वारा समस्त नागरिकों को समस्त नागरिक स्वतंत्रताएँ प्राप्त हों यह भी व्यवस्था की गई हो कि आर्थिक जीवन में कोई व्यक्ति किसी दूसरे का शोषण न कर सके। इन सभी व्यवस्थाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस राज्य के नागरिक नैतिक दृष्टि से कितने सुदृढ़ हैं।
यदि वे आसानी से लोभ, मोह, भय आदि के वशीभूत हो जाएंगे तो अच्छी से अच्छी व्यवस्था भी उन्हें स्वतंत्र नहीं रख सकेगी। राज्य शक्ति का प्रयोग करने वाले लोगों को भी नैतिक दृष्टि से सुदृढ़ होना चाहिए। स्वार्थ, लोभ, क्रोध, घृणा आदि चारित्रिक दुर्बलताओं के वशीभूत होकर कार्य करने वाला व्यक्ति नैतिक स्वतंत्रता की श्रेणी में आता है।